अर्थन किं कृपणहस्तगतेन तेन,
रूपेण किं गुणपराक्रमवर्जितेन ।
मित्रेण किं व्यसनकालपराङ्मुखेन,
ज्ञानेन किं बहुशठाधिकमत्सरेण॥

उस धन का क्या उपयोग
जो किसी कंजूस के हाथ में हो
(व जरूरतमंदों के काम न आए) ?
उस रूप की क्या लाभ
जो गुण और पराक्रम से रहित हो ?
उस मित्र का क्या साथ
जो विपत्ति के समय मुंह मोड़ ले
(और स्वार्थ सिद्ध होते ही दूर हो जाए) ?
उस ज्ञान का क्या मूल्य
जो छल-प्रवृत्तियों और घमंड से भरा हो ?

Comments